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बुधवार, 25 अगस्त 2010

Thought - To Think: आजादी

Thought - To Think: आजादी: "१९४७ से २०१० कुल मिला कर हो गए ६३ साल हमे आजाद हुए। ६३ साल एक सफ़र की तरह शायद गुज़र गया भारत के इतिहास में। इतिहास के पन्नो पर इन ६३ सालों ..."

सोमवार, 23 अगस्त 2010

आजादी

१९४७ से २०१० कुल मिला कर हो गए ६३ साल हमे आजाद हुए। ६३ साल एक सफ़र की तरह शायद गुज़र गया भारत के इतिहास में। इतिहास के पन्नो पर इन ६३ सालों का विवरण लिख दिया गया होगा ठीक उसी तरह जिस तरह गुलाम भारत का विवरण आज हमे मिल जाता है अनदेखा अनजाना विवरण। जिसे हम एक कहानी समझ कर शायद पढ़ लेते है। एक कहानी जो हमे शायद ख़ुशी देती है। एक कहानी जो हमारा मनोरंजन करती है। एक कहानी जो इतिहास का विषय है और विद्यालयों में पढ़ा और पढाया जाने वाला पाठ भी। जिसे छात्र पढ़ते हैं इसलिए की परीक्षा में उस पाठ में से कोई प्रश्न आ सकता है और उसका उत्तर लिखना है वर्ना नंबर कट जायेंगे और फेल होने का डर सताता है। न जाने कितनी ही फिल्मों का निर्माण हो चूका है इस इतिहास पर। हम बड़े शौक से जाते हैं इन फिल्मो को दखने के लिए। अन्दर का तो पता नहीं मगर सिनेमा हॉल से बाहर निकल कर हम सब भूल जाते है, हम ये भी भूल जाते है की फिल्म में दिखा गया इतिहास किसका था, हम तो सिर्फ और सिर्फ हीरो और हिरोइन की बातें करते नज़र आते है और फिर किसी नयी फिल्म का इंतज़ार करने लगते है। कितना अजीब सा है हमारा यह भारतीय परिवार। बिलकुल निश्चिंत निश्फिकिर, अपने आप में ब्यस्त, सब कुछ जान कर भी अनजाना, सब कुछ देख कर भी अनदेखा सा।
६३ साल ! क्या पाया हमने इन ६३ सालों में? क्या खोया हमने इन ६३ सालों में? क्या सचमुच हम आजाद हो गए हैं सही मायनो में? आजादी का मतलब क्या है? क्या सीखा है हमने इन ६३ सालों में? क्या हम सचमुच इन प्रश्नों का उत्तर दे सकते है? शायद नहीं?
६३ साल! हम आज तक अपनी पहचान भी ठीक तरह से नहीं बना पाए है विश्व पटल पर। क्या है हमारी पहचान? कौन है हम? एक इंडियन या भारतीय या फिर हिन्दुस्तानी ?
६३ साल! हम आज तक अपनी भाषा भी नहीं सिख पाए ठीक तरह से। क्या है हमारी भाषा? अंग्रेजी या हिंदी या फिर वो जो भारत के अलग अलग छेत्र में बोली जाती है अलग अलग भाषा।
६३ साल! हम आज तक विभाजित है धरम के नाम पर।
६३ साल! हम आज तक विभाजित है कर्म के नाम पर।
६३ साल! हम आज भी मजबूर है व्यवस्था के नाम पर।
६३ साल! हम आज भी पिस रहे है सत्ता के नाम पर।
६३ साल! रोज़ किसी न किसी तरह हम इन प्रश्नों को झेलते आ रहे है। कभी अख़बार के पन्नो पर। कभी रेडियो पर या फिर टीवी पर। कभी किसी सेमिनार में श्रोता बन कर। कभी अपने लोगो के बीच बैठ कर। कभी शायद अपने आप से ही बातें कर के।
मगर हम निश्चिंत है कोई न कोई तो उत्तर खोज ही लेगा इन प्रश्नों का और फिर ये हमारा काम नहीं है। ये तो उपरवालों का काम है जो हमसे ऊपर बैठे हैं। जो इस देश को चलाते हैं। हम सिर्फ एक आम आदमी हैं।
आम आदमी ! एक आम आदमी बिलकुल आम होता है। जिसे जो चाहे जब चाहे चूस कर फेक देता है। किसी गटर में या फिर किसी कुरेदान में। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से जिसे फुरसत नहीं, रोज़मर्रा की भागदोर से जिसे फुरसत नहीं, जो सिर्फ अपने आप में ही व्यस्त है, सुबह से शाम तक ज़िन्दगी की चक्की में रोज़ जो पिसता रहता है, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश करता हुआ, थका हरा, परेशान सा घर लौटता हुआ, जिसकी ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं, सब कुछ उस उपरवाले की दया पर, उम्मीद पर टिका, आशा करता हुआ जनम लेता है एक दिन मर जाता है। ऐसा होता है एक आम आदमी।
एक आम आदमी का देश, हमारा देश, हम सब का देश। मगर ये देश आज तक आम आदमी का नहीं हो सका और ना ही आम आदमी इस देश का। कितना बड़ा दुर्भाग्य है हम सब का की हम इस देश के हैं मगर हम इस देश के नहीं हो सके। हम सोचते बहुत हैं मगर करते कुछ भी नहीं। हमारी सोच सिर्फ हम तक ही रह जाती है। हम सुनते बहुत हैं मगर सुनाते नहीं। हमारे बोल हमारे अंदर ही दब कर रह जाते हैं, यहाँ तक की हमारे अपने कान भी उन बोलों को सुन नहीं पाते हैं। हमे अधिकार दिया गया है मगर उसे क्षिन भी लिया गया है। हमे आँखे तो दी गयी मगर रौशनी क्षिन ली गयी। सुबह आई मगर उजाला नहीं लायी। बाग़ तो है मगर बहार का पता नहीं। ज़िन्दगी है मगर जीवन का ठिकाना नहीं। लोग तो है मगर लोगों का पता नहीं। सब कुछ बस उस पर निर्भर। उसने दिया तो ठीक नहीं दिया तो ठीक। संतोष ही जीवन है और संतोषी हमारा मन। हम सब कुछ सह लेते हैं। कितना भी बुरा हो हम उसे नियति मान लेते है। ये सहना शायद हमारी आदत हो गयी है। अभी तक सिर्फ हम सहते ही आये है और सह रहे हैं और एक दिन सहते सहते चले जायेंगे। गुलामी की आदत सी हो गयी हमे। २००० साल या फिर उससे भी जयादा हम गुलाम थे। और आज भी हम गुलाम हैं। उस समय विदेशियों के गुलाम थे और आज हम अपने आप के। किसको दोष दें, उन विदेशियों को या फिर अपनों को। वो तो चले गए मगर ये अपने कहाँ जायेंगे? उनसे तो हम लड़ लिए मगर इनसे कैसे लड़े? उनसे लड़ने के लिए हमारे पास हथियार थे, अहिंसा, एकता, भाईचारा, सध्भाव्ना, सत्य और संकल्प। इनसे लड़ने के लिए तो हमारे पास हथियार भी नहीं है। क्योंकि इन्होने हमे पंगु बना दिया है। हमारे हाथ कट दिए हैं। हमारी शक्ति को क्षिन लिया है। जिस हाथ पाँव और शक्ति के बल पर हम लड़े थे वो ही आज हमारी रुकावट बन गए हैं। हम लड़े भी तो कैसे लड़े और हम किसके विरुद्ध लड़े अपनों के ही ?
हम सबका भारत हमारा अपना भारत सपनो का भारत एकता और भाईचारा का भारत।
आजादी को सलाम भारत को सलाम भारत के भारतवासियों को सलाम।

Thought - To Think: जीवन और हमारी...............

Thought - To Think: जीवन और हमारी...............: "जीवन और जिंदगी, दो शब्द, अर्थ एक। जीवन हमे कोई और देता है, और जिंदगी हम खुद अपने लिए चुनते हैं। इन दो शब्दों का यहाँ अर्थ ही बदल देते हैं ..."

सोमवार, 2 अगस्त 2010

जीवन और हमारी...............



जीवन और जिंदगी, दो शब्द, अर्थ एक।
जीवन हमे कोई और देता है, और जिंदगी हम खुद अपने लिए चुनते हैं।
इन दो शब्दों का यहाँ अर्थ ही बदल देते हैं हम।
जीवन मिलने के बाद अब हमें जीवन से कोई मतलब नहीं रह जाता है, और हम केवल जिंदगी के बारे में सोचने लग जाते है। जीवन कैसे जीना है? जीवन कैसे बिताना है? जीवन कैसा होना चाहिए? जीवन में क्या चाहिए? हमारी चाहत का एक पुलिंदा बन जाता है। चाहत जो कभी ख़तम नहीं होती है। बढ़ती ही जाती है ठीक उसी तरह जैसे जैसे हमारी उम्र बढती जाती है। अपनी चाहतो को पूरा करने के लिए हम कुछ भी करने को तैयार रहते है। बस हमारी इच्छाओ को पूरा करना है। कीमत कुछ भी हो। उस समय हम सब कुछ भूल जाते है। क्या धर्म है और क्या कर्म है? विवेक क्या होता है? समझ क्या होती है? नहीं जानते। हम जो कुछ भी करते है उसका एक बहाना या यूँ कहूं तो कुछ ठीक होगा शायद कि हम अपने मन को समझा लेते है। जो भी हमने किया वोह सब सही था और आज के हिसाब से ठीक भी था। सभी तो येही करते है। इसमें बुरा क्या है? जो और लोग करते है वोही तो हम भी करते है। पैसा कमाना, कमाकर खर्च करना, ज्यादा कमा लिया तो एसो आराम से जीना नहीं तो ज्य्यादा कमाने के तरीके ढूँढना। हर कोई येही कर रहा है और करता रहेगा, क्यूंकि यही दुनिया का नियम है। दुनिया इसी तरह चलत्ती है और चलत्ती रहेगी। इसे न मैं बदल सकता हूँ और ना ही आप बदल सकते है। लेकिन जिंदगी के बारे में तो हम सोच सकते है? क्या जीने के लिए या अपनी जिंदगी के बदले में हम किसी और का जीवन ले सकते है? या फिर किसी को भी खुश करने के लिए हम किसी के भी जीवन को नष्ट कर सकते है? क्या जीवन लेना हमारा अधिकार है?
कुछ प्रश्न है जो अनूतरित है । जिनका उत्तर शायद कोई दे सके। धर्म के नाम पर या फिर कर्म के नाम पर?
सोचने के लिए समय हमारे पास नहीं है, पर फिर भी हम सोचते है। कब? जब हम सुनते है, या फिर कहीं पढ़ते है या फिर कहीं देखते है तो एक बार के लिए ही सही मगर सोचते है और फिर......? सब कुछ वैसा का वैसा। जिंदगी अपनी रफ़्तार से चलती रहती है और हम जिंदगी के लिए उसी रफ़्तार से चलते रहते है।