Translate

शनिवार, 3 मार्च 2012

मजबूरी----- या ------ समझौता।

आज मुझे पता लगा कि मैं कितना मजबूर हूँ। चाह कर भी मैं वो नहीं कर सकता हूँ जो मैं करना चाहता हूँ। आँखों के सामने होते देख कर भी मैं उसे रोक नहीं सकता हूँ। मुझे मालूम है कि जो हो रहा है वो बुरा हो रहा है, ऐसा नहीं होना चाहिए फिर भी मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूँ। हालात के साथ समझौता करके रह जाता हूँ। कभी कभी तो मैं भी वो कर लेता हूँ, जो मुझे नहीं करना चाहिए। ऐसा क्यूँ होता है? आखिर कब तक ऐसा होता रहेगा? कब तक ये चलता रहेगा? मैं रोज जब घर से निकलता हूँ, ऐसे हालात से रोज ही किसी न किसी तरह से रूबरू होता हूँ। मेरे सामने एक पुलिसवाला रिश्वत लेता है और मैं सिर्फ देखता रहता हूँ। मजबूरी----- या ------ समझौता। जानता हूँ कभी अगर मैं भी इसी हालात से गुजरा तो मुझे उसको रिश्वत देनी पड़ेगी। ये सोच कर मैं आगे बढ़ जाता हूँ। बगल से गुजरता हुआ कोई राहगीर कहता है----" देखो साले को! शर्म भी नहीं आती है उसको, खुलेआम घुस ले रहा है। क्या ज़माना आ गया है, बाबा रे बाबा.... देश तो जैसे रशातल में चला गया है।" बस काम खत्म हो गया। अपने आप से बोला और चला गया। मजबूरी ------ या ------- समझौता। क्या कहूं इसे? मैं भी अपने काम से मतलब रखता हुआ आगे बढ़ जाता हूँ।
रोज कि तरह आज भी मैं सुबह जल्दी से तैयार हो कर अपने कार्यालय के लिए निकल गया। महानगर की सुबह मतलब भागमभाग। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं। बस जल्दी से अपने गंतब्य तक पहुंचना एक ही मकसद। आगे क्या है, कौन है, किसी को देखने कि फुरसत नहीं। अगर रास्ते में कोई जानपहचान वाला मिल गया और वो अगर महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं है तो दूर से नमस्कार कर आगे बढ़ जाना और महत्वपूर्ण लगा तो उससे सिर्फ ये पूछना की "कैसे हैं? मैं अभी ऑफिस जा रहा हूँ लौट कर आपसे बात करता हूँ"। येही है सुबह यहाँ की।
मैंने भी रोज की तरह अपने घर के आगे की गली को पार किया और मुख्य सड़क पर आ गया।आगे चौराहा है और ये चौराहा काफी ब्यस्त रहता है। यहाँ मुझे रास्ता पार करना है और फिर सड़क के अंतिम छोर से बस पकडनी है अपनी मंजिल के लिए। अभी ग्रीन सिग्नल दिया हुआ है। मैं सड़क किनारे खड़ा हो जाता हूँ और इंतज़ार करता हूँ, लाल बती होने का ताकि मैं आसानी से रास्ता पार कर सकूं। मेरे सामने ही एक महिला जिसके साथ एक छोटा बच्चा भी है, शायद उसी का होगा, अचानक रास्ते पर कूद पड़ती है जैसे कोई तैराक नदी में छलांग लगाता है, निडर हो कर क्योंकि उसे मालूम होता है कि वो नदी कि तेज धारा से आसानी से मुकाबला कर लेगा और देखते ही देखते वो महिला बच्चे को साथ लेकर ट्राफ्फिक कि तेज आवाजाही का मुकाबला आसानी से करते हुए सही सलामत रास्ते के उस पार चली गयी। मैंने देखा उसके चेहरे पर एक विजय की ख़ुशी झलक रही थी और एक हल्की सी मुस्कान रेखा उसके गालों पर फैल चुकी थी। जैसे कोई जंग जीत कर आये सिपाही के चेहरे पर दिखती है। मैं इस पार खड़े खड़े बस देखते रह गया। उसने जो किया वो सही था या मैं जो इस तरह खड़े हो कर अपना समय बर्बाद कर रहा हूँ वो सही है। सच में समय की सही कीमत तो वो सिर्फ वो जानती है। तभी तो सामने के खतरों की परवाह किए बिना समय का सदुपयोग करते हुए उसने न सिर्फ अपना बल्कि अपने साथ वाले बच्चे का और यहाँ तक कि रास्ते पर जाने वाली गाड़ियों के ड्राईवर तक का जीवन खतरे में डाल दिया और बिजयी बन कर, एक मुस्कान सब पर बिखेर कर चली गयी। मुझे उसने सीखा दिया कि जीवन से इतना मोह क्यूँ है, जब कि जीवन तो एक दिन नष्ट हो जायेगा। लेकिन समय अगर चला गया तो फिर लौट कर नहीं आयेगा। मेरे पास मेरी ही तरह खड़े एक महाशय बोल पड़े- " क्या बात है? मानना पड़ेगा! साहस है उसमे!......" मैं बोला - " जी, जरूर आपने सही कहा है, साहस तो है। मगर ये साहस क्या काम का जो जानबूझ कर आपको मौत के मुहं में ले जाये और सिर्फ आपको ही क्यूँ आपके साथ ही साथ आपके साथ वाले और आने जाने वालो को भी मौत के दुआर पर खड़ा कर दे। ये तो ऐसा ही जैसे आपमें जीने कि इच्छा खत्म हो गयी है और आप खुदकुशी कर रहे है। सिर्फ खुदकुशी ही क्यूँ , आप तो कत्ल भी कर रहे हैं दुसरो का जो कि निर्दोष है। क्या जाने जहाँ आप समय से पहुंचना चाहते है, वहां आप कभी पहुँच ही न पाए और वहां कोई आपका जिंदगी भर सिर्फ इंतज़ार ही करता रह जाये। अब बताइये क्या सही है? वो जो उसने किया या वो जो हम कर रहे है? सिर्फ पांच मिनट का इंतज़ार और सुरक्षित मंजिल तक पहुँचने का आसन रास्ता, एक इंतज़ार करती खुशहाल लम्बी जिंदगी। अरे मौत तो सभी को आनी है और आएगी भी एक दिन, मगर खुदकुशी करने से तो अच्छा है कि जीवन को जीया जाये। कौन जाने आने वाला समय हमारे लिए क्या सौगात लेकर आने वाला है।" महाशय ने शायद गौर से ही मेरी बात सुनी होगी ऐसा मुझे लगा। वो धीरे से बस मुस्करा भर दिए और हम दोनों ने लाल बत्ती होते ही रास्ता पार किया और अपनी अपनी मंजिल कि और चले गए।
आगे चलते चलते मैं सोच रहा था क्या सचमुच मेरी बात का कोई असर उन महाशय पर पड़ा होगा या सिर्फ वो खड़े खड़े वो पांच मिनट का समय बिता रहे थे। ये तो मुझे मालुम नहीं, लेकिन अब मुस्कुराने कि बारी मेरी थी। मैं जो उस तेज बहती धारा को पार कर सुरक्षित निकल आया था, बिना नदी में तैरे बस उस पानी पर चल कर आराम से। ये तो रोजमर्रा कि बात है, ऐसा तो रोज इस महानगर में हर चौराहे पर और हर सड़क पर देखने मिल जाता है। मैं किस किस को रोक रोक कर समझाता रहूँगा और कब तक और सबसे बड़ी बात क्यूँ? ये सवाल अचानक चलते चलते मेरे मन मैं कौंधा, क्यूँ? क्यूँ मैं इन्हें समझायूं? क्या सब के सब नासमझ हो गए हैं? मेरा क्या जाता है, जिंदगी उनकी है जो चाहे करे अपनी जिंदगी से। अगर मैं उन्हें समझाने जाऊँगा तो उलटे वो मुझे ही कठगरे में खड़ा कर देंगे, " तुम कौन होते हो हमे समझाने वाले? अपने आपको बहुत समझदार समझते हो? हैसियत ही क्या है तुम्हारी? चलो! जाओ अपना काम करो और हमें भी अपना काम करने दो"। दस में शायद सात का जवाब येही होगा, बाकि तीन हो सकता है आपसे सॉरी कहे और आगे बढ़ जाये। आगे जाते जाते आपके कानों में आवाज आएगी कि बड़ा आया समझाने वाला।
तो फिर मैं क्यूँ समझायूं किसी को? उन्हें तो खुद को समझ में आना चाहिए कि वो जो कर रहे वो क्या रहे है। मगर महानगर कि भागमभाग जिंदगी किसी को इतना सब कुछ सोचने कि फुरसत ही कहाँ देती है। कहीं कोई दुर्घटना घट गयी तो आने जाने वाले वहां जमा हो जायेंगे और थोड़ी देर मंज़र को देखने और समझने में बिता कर अपनी अपनी रह पर चले जायेंगे। दो चार जन अफ़सोस जताएंगे--" इतनी जल्दी क्या थी रास्ता पार करने कि, थोड़ी देर इंतज़ार नहीं कर सकता था। सिर्फ दो मिनट कि ही तो बात थी, मगर नहीं! पता नहीं इसको इतनी जल्दी क्या थी। भगवान् बहुत बुरा हुआ। उस साले गाड़ी वाले को तो पीटना चाहिए, दिखता नहीं था उसको कि कोई रास्ता पार कर रहा है।"  फिर क्या सब भूल जायेंगे उस घटना और दुर्घटना को।
मैं आगे तेज़ गति से बढ़ रहा था, क्योंकि मुझे अपने कार्यालय में समय से उपस्थित होना था। मेरी इस चिंता ने मेरी सारी सोच बंद कर दी और मेरे दिमाग में सिर्फ अपने बॉस कि रूद्र रूप कि तस्वीर उभरने लगी जो कि अक्सर देर से पहुँचने पर मुझे रूबरू होती थी साछात। अब तो मेरे पावों में जैसे पहिये लग गए थे, मैं जल्दी से जल्दी बस स्टॉप तक पहुंचना चाहता था, ताकि एक भी बस छुट न जाये वरना आज भी मुझे वो तश्वीर देखनी होगी और सारा दिन मेरा बर्बाद उस तश्वीर के साथ। मैंने गौर गिया कि फूटपाथ पर बहुत भीड़ थी, लोग रेंग रेंग कर आगे बढ़ रहे थे। एक तो फूटपाथ कि चौड़ाई कम थी, जैसा कि हर महानगर में होता है, ऊपर से फूटपाथ पर बनी हुई अनगिनत अस्थाई दुकाने जो कि लकड़ी कि चौकी को घेर लगाई हुई थी, पुरे फूटपाथ कि चौड़ाई को सिकुरते हुए बिल्कुल जगह ही नहीं छोड़ी थी कि राहगीर आराम से चल फिर सकें। सरकार को तो जैसे हम पैदल चलने वालो कि कोई फिकर ही नहीं है। फिकर हो भी क्यों? क्योंकि पैदल चलने वालो से भला सरकार के रास्ते विभाग को क्या मिलता है? सड़क का इस्तेमाल करने वाली गाड़ियों से सरकार को टैक्स के रूप में मोटी कमाई होती है। फूटपाथ पर बैठने वाले अस्थाई दुकानदारो से अलग अलग विभागों को उपरी कमाई होती है। ले दे कर पैदल चलने वाले ही बचते हैं जिनसे किसी को कोई कमाई नहीं। तो फिर हमारी चिंता कौन करेगा। इतना ही नहीं जो स्थाई दुकानदार हैं उन्होंने भी अपनी अपनी दुकानों के सामने के फूटपाथ पर बची हुई जगह पर कब्ज़ा जमा लिया है और अपनी दुकानों के फालतू सामानों को फूटपाथ पर डाल दिया हैं। बस सिर्फ फूटपाथ पर इतनी ही जगह बची है कि ढंग से एक ही आदमी चल सकता है, अगर सामने से कोई अन्य व्यक्ति आ गया तो उसे जगह देने के लिए अपने शरीर को एक सौ अस्सी डिग्री में मोड़ना पड़ेगा वरना उसके साथ आपकी टक्कर हो जाएगी। ऐसी परिस्थिती से रोज गुजरना तो जैसे अब आदत हो गयी है तभी तो कोई इसका कभी विरोध नहीं करता है। मजबूरी------ या -----समझौता। मैं भी बिना किसी का विरोध किए उसी तंग जगह में से अपना रास्ता बनाता हुआ तेजी से आगे बढ़ रहा था, अभी तक दो तीन जन से मेरी भिडंत हो चुकी थी। जल्दी जल्दी चलने कि कोशिश में न जाने कब मैं फूटपाथ छोड़ कर रास्ते पर उतर आया था मुझे पता ही नहीं चला। मुझे पता तो तब चला जब अचानक सामने से आती हुई एक तेज़ रफ़्तार गाड़ी ने जोर से चिंघारा और मेरी तन्द्रा भंग हो गई। मैं अपने आप से शर्मिंदा हो गया। रोड के उस तरफ ट्राफ्फिक पुलिस विभाग का एक बड़ा सा पोस्टर सड़क किनारे लगा हुआ था जिस पर लिखा हुआ था " फूटपाथ का इस्तेमाल करीए, सड़क पर चलना कानून जुर्म है। आपका अपना जीवन कीमती है। देख सुन कर रास्ता पार करें, घर पर कोई आपका इंतज़ार कर रहा है"।