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सोमवार, 2 अगस्त 2010

जीवन और हमारी...............



जीवन और जिंदगी, दो शब्द, अर्थ एक।
जीवन हमे कोई और देता है, और जिंदगी हम खुद अपने लिए चुनते हैं।
इन दो शब्दों का यहाँ अर्थ ही बदल देते हैं हम।
जीवन मिलने के बाद अब हमें जीवन से कोई मतलब नहीं रह जाता है, और हम केवल जिंदगी के बारे में सोचने लग जाते है। जीवन कैसे जीना है? जीवन कैसे बिताना है? जीवन कैसा होना चाहिए? जीवन में क्या चाहिए? हमारी चाहत का एक पुलिंदा बन जाता है। चाहत जो कभी ख़तम नहीं होती है। बढ़ती ही जाती है ठीक उसी तरह जैसे जैसे हमारी उम्र बढती जाती है। अपनी चाहतो को पूरा करने के लिए हम कुछ भी करने को तैयार रहते है। बस हमारी इच्छाओ को पूरा करना है। कीमत कुछ भी हो। उस समय हम सब कुछ भूल जाते है। क्या धर्म है और क्या कर्म है? विवेक क्या होता है? समझ क्या होती है? नहीं जानते। हम जो कुछ भी करते है उसका एक बहाना या यूँ कहूं तो कुछ ठीक होगा शायद कि हम अपने मन को समझा लेते है। जो भी हमने किया वोह सब सही था और आज के हिसाब से ठीक भी था। सभी तो येही करते है। इसमें बुरा क्या है? जो और लोग करते है वोही तो हम भी करते है। पैसा कमाना, कमाकर खर्च करना, ज्यादा कमा लिया तो एसो आराम से जीना नहीं तो ज्य्यादा कमाने के तरीके ढूँढना। हर कोई येही कर रहा है और करता रहेगा, क्यूंकि यही दुनिया का नियम है। दुनिया इसी तरह चलत्ती है और चलत्ती रहेगी। इसे न मैं बदल सकता हूँ और ना ही आप बदल सकते है। लेकिन जिंदगी के बारे में तो हम सोच सकते है? क्या जीने के लिए या अपनी जिंदगी के बदले में हम किसी और का जीवन ले सकते है? या फिर किसी को भी खुश करने के लिए हम किसी के भी जीवन को नष्ट कर सकते है? क्या जीवन लेना हमारा अधिकार है?
कुछ प्रश्न है जो अनूतरित है । जिनका उत्तर शायद कोई दे सके। धर्म के नाम पर या फिर कर्म के नाम पर?
सोचने के लिए समय हमारे पास नहीं है, पर फिर भी हम सोचते है। कब? जब हम सुनते है, या फिर कहीं पढ़ते है या फिर कहीं देखते है तो एक बार के लिए ही सही मगर सोचते है और फिर......? सब कुछ वैसा का वैसा। जिंदगी अपनी रफ़्तार से चलती रहती है और हम जिंदगी के लिए उसी रफ़्तार से चलते रहते है।

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