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शनिवार, 14 अप्रैल 2012

Thought - To Think: विकल्प!------क्या है ?

Thought - To Think: विकल्प!------क्या है ?: हम जब ज़िन्दगी से हार जाते हैं तो क्या करते हैं? सिर्फ दो ही विकल्प बचते हैं हमारे पास, या तो मौत से दोस्ती कर ली जाये या फिर ज़िन्दगी से द...

विकल्प!------क्या है ?

हम जब ज़िन्दगी से हार जाते हैं तो क्या करते हैं?
सिर्फ दो ही विकल्प बचते हैं हमारे पास, या तो मौत से दोस्ती कर ली जाये या फिर ज़िन्दगी से दुबारा युद्ध शुरु कर दिया जाए। कहने को तो दोनों बड़े ही आसान लगते हैं। मौत से दोस्ती या ज़िन्दगी से युद्ध! पर असल में दोनों ही बड़े कठिन है। मौत से दोस्ती क्या इतनी सरल है? क्या मौत इतनी आसानी से हमारी दोस्ती कबूल कर लेगी? सोच कर ही माथे पर शिकन आ जाती है। मौत भी तो भाई अपनी इच्छा की मालिक है। जब उसकी इच्छा होगी तभी तो दोस्त बनकर हमें गले लगाएगी। अगर मौत से दोस्ती इतनी आसान होती तो हर कोई उससे दोस्ती कर लेता। पर नहीं उसके ह्रदय में जगह तो तभी मिलेगी जब वो चाहेगी। जहाँ तक मैं समझता हूँ, कितनो ने ही कोशिश की होगी मौत को गले लगाने की पर सफल नहीं हो पाए। कोशिश नहीं भी तो कम से कम एक बार सोचा तो ज़रूर होगा। ऐसा हो नहीं सकता कि कोई कभी ज़िन्दगी में निराश न हुआ हो। कम से कम मैं तो ऐसा मानता हूँ। ज़िन्दगी की दौड़ में कोई कभी हारा न हो, ऐसा क्या हो सकता है? बिलकुल नहीं।
जब हम ज़िन्दगी से निराश हो जाते हैं, जब हम ज़िन्दगी की दौड़ में हार जाते हैं, तब हमें ज़िन्दगी एक बोझ लगने लगती है और हम मौत की तरफ अपने कदम बढाने लगते हैं। फिर जब हमारा मौत से सामना होता है तो हम ज़िन्दगी की दुहाई देने लगते हैं। कितनी अजीब स्तिथि होती है न ये! ज़िन्दगी और मौत! दो सच हमारे सामने है। फिर भी कोई इनको मानने को तैयार नहीं। पता नहीं क्यूँ हम सच से हरदम दूर क्यों भागते हैं। सच का सामना हम करना ही नहीं चाहते हैं। सच तो सच होता है। मौत से सभी को डर लगता है। लगे भी नहीं क्यूँ, क्योंकि मौत होती भी कितनी भयानक है। किसी को भी नहीं मालूम कि मौत के बाद क्या होता है। मगर सभी को ये मालूम है की ज़िन्दगी के बाद सिर्फ मौत है। ज़िन्दगी में तो सब कुछ दिखता है। जो बीत चूका, जो हो रहा है या फिर आने वाला पल जिसकी हम कल्पना करते है। सब कुछ हमारे सामने है, हो रहा है, हो चूका या फिर होने वाला है। मगर ज़िन्दगी भी कोई इतनी आसान नहीं होती है, एक युद्ध है ये। जहाँ हर पल एक आशंका बनी रहती है जीत की या फिर हार की। जहाँ हर पल एक आशंका बनी रहती है जीवन की या फिर मौत की। जहाँ हर पल आशंका बनी रहती है पाने की या फिर खोने की। इसी आशंका और संकट के बीच जो है वो जीवन है और जीवन का ही दूसरा रूप ज़िन्दगी है। हम इसी आशंका को टालने के लिए क्या क्या नहीं करते है। भगवान से ले कर हर उसकी पूजा करते हैं जिनसे हमे आशा होती है कि वो हमारी हर आशंका को मिटा देंगे, हमारे हर संकट को हर लेंगे। नेता चुनाव में खड़ा हो, खिलाडी मैदान पर डटा हो, सैनिक युद्ध के मैदान पर लड़ रहा हो, राहगीर रह पर चल रहा हो, विद्यार्थी परीछा में बैठा हो, कर्मी काम पर लगा हो, गृहणि घर पर हो, आशंका हर जगह बनी रहती है, हार या जीत की और इसी आशंका को दूर करने के लिए, जो हम चाहते हैं उसे पाने के लिए हम वो सब करते हैं जिस कार्य में हमें आशंका को टालने की आशा दिखाई देती है। और तो और कभी कभी हम वो भी कर जाते हैं जो कार्य हमे नहीं करना चाहिए। जो गलत है। मगर नहीं हमे तो सिर्फ और सिर्फ जीतना है, और जीतने के लिए हम कुछ भी कर सकते है। आखिर कहा भी तो गया है कि युद्ध और प्यार में सब जायज है। मुझे नहीं मालूम ये किसने कहा है और क्यूँ कहा है। मगर अपने मन को संतोष प्रदान करने के लिए ये पंक्ति हर कोई याद कर लेता है। ये युद्ध हर कोई जीतना चाहता है। जो छोटी लड़ाई जीत गया वो फिर बड़ी लड़ाई में हिस्सा लेता है और फिर उससे भी बड़ी, और उससे भी बड़ी........., इस लड़ाई का कोई अंत नहीं है। आप जीतना भी लड़ोगे ये लड़ाई उतनी ही बड़ी होती जाएगी। जब आप एक बार जीत का स्वाद चख लेते हो तो फिर आपकी आशाएं भी बढ़ने लगती है और लड़ाई भी उसी अनुरूप अपना आकार बढ़ा लेती है। आप कितना लड़ सकते हो ये सिर्फ आप ही तय कर सकते हो, क्योंकि लड़ाई के मैदान में लड़ाई का कोई आकार नहीं होता और कोई तय समय सीमा नहीं होती है। ये सिर्फ लड़ने वाले पर निर्भर करता है कि वो मैदान में कितनी देर टिक सकता है, और इसी को मात देने के लिए हम न जाने क्या क्या कर जाते हैं। मगर अंत में हमे क्या मिलता है? कोई बता सकता है? 
नहीं हमे कुछ भी नहीं मिलता है, न हम कुछ पाते हैं और न हम कुछ खोते है। मगर इस पाने और खोने की जधोजहद में न जाने हम क्या क्या खो देते है। अपना अमूल्य समय, जो हमें दुबारा नहीं मिलेगा। अपना अमूल्य जीवन, जो हमें दुबारा नहीं मिलेगा। और तो और अपनी अंतरात्मा, अपने विवेक तक हम खो देते हैं।
क्या सिर्फ जीतना ही सब कुछ है? क्या जीतने से ही सब कुछ मिलेगा? शायद हाँ या फिर ना।  माना की जीतना जरुरी है लेकिन कैसे? उस तरह! जहाँ हम जीत तो जाते हैं मगर कुछ जीत नहीं पाते हैं, या फिर जीत कर भी हार जाते हैं। जीत तो वो होती है जब दुश्मन भी आपकी वाह वाही कर उठे और कहे वाह क्या जीते हो तुम। कहने का मतलब असली जीत तो वो होती है जब ज़िन्दगी भी आपकी जीत पर ख़ुशी से झूम उठे। जीत वो नहीं होती जहाँ जीवन ही निराश हो जाये। ऐसी जीत से क्या होगा, जो आपको मिली तो मगर आपका सब कुछ छिनकर। 
ज़िन्दगी से युद्ध का मतलब ये नहीं की आप ज़िन्दगी को ही धोखा दे दो। बल्कि युद्ध तो वो होता है जहाँ आपको ये दिखाना होगा कि " देख ज़िन्दगी तू जितनी खुबसूरत है मैंने तुझे उतनी ही खूबसूरती से जीया है, अब तू ही बता कौन जीता और कौन हारा ?"

"जीयो ज़िन्दगी में इस तरह कि
ज़िन्दगी भी तुमसे इर्ष्या करे,
भर दो खूबसूरती इतनी कि
औरो की ज़िन्दगी भी जलन करे।


मौत भी आये तुम्हे गले लगाने
तो शर्माकर वो चली जाये,
ज़िन्दगी पकडे दामन तुम्हारा  
कि छोड़ने को उसका भी जी न चाहे।


ज़िन्दगी को सिर्फ दो लाइन 
नहीं एक किताब बनायो,
उसके हर एक पन्ने पर
बस तुम ही तुम छा जाओ।


लेखनी भी तुमसे कह उठे
इतनी सुन्दरता लेख में भर दी,
तुम्हारे हाथों में आकर मैं
तो आज धन्य हो उठी।


धन्य हो उठी मैं आज
कि तुमने है जो लिखा,
तुम्हारे हाथों में आकर ही
मैंने भी जीवन को जीया।


बन "ज्योति" तू इस कदर
ऊपर आसमान पर छा जाये,
तेरी इस ज्वाला के आगे
सूरज भी फीका पड़ जाये।"















Thought - To Think: मजबूरी----- या ------ समझौता।

Thought - To Think: मजबूरी----- या ------ समझौता।: आज मुझे पता लगा कि मैं कितना मजबूर हूँ। चाह कर भी मैं वो नहीं कर सकता हूँ जो मैं करना चाहता हूँ। आँखों के सामने होते देख कर भी मैं उसे रोक न...

शनिवार, 3 मार्च 2012

मजबूरी----- या ------ समझौता।

आज मुझे पता लगा कि मैं कितना मजबूर हूँ। चाह कर भी मैं वो नहीं कर सकता हूँ जो मैं करना चाहता हूँ। आँखों के सामने होते देख कर भी मैं उसे रोक नहीं सकता हूँ। मुझे मालूम है कि जो हो रहा है वो बुरा हो रहा है, ऐसा नहीं होना चाहिए फिर भी मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूँ। हालात के साथ समझौता करके रह जाता हूँ। कभी कभी तो मैं भी वो कर लेता हूँ, जो मुझे नहीं करना चाहिए। ऐसा क्यूँ होता है? आखिर कब तक ऐसा होता रहेगा? कब तक ये चलता रहेगा? मैं रोज जब घर से निकलता हूँ, ऐसे हालात से रोज ही किसी न किसी तरह से रूबरू होता हूँ। मेरे सामने एक पुलिसवाला रिश्वत लेता है और मैं सिर्फ देखता रहता हूँ। मजबूरी----- या ------ समझौता। जानता हूँ कभी अगर मैं भी इसी हालात से गुजरा तो मुझे उसको रिश्वत देनी पड़ेगी। ये सोच कर मैं आगे बढ़ जाता हूँ। बगल से गुजरता हुआ कोई राहगीर कहता है----" देखो साले को! शर्म भी नहीं आती है उसको, खुलेआम घुस ले रहा है। क्या ज़माना आ गया है, बाबा रे बाबा.... देश तो जैसे रशातल में चला गया है।" बस काम खत्म हो गया। अपने आप से बोला और चला गया। मजबूरी ------ या ------- समझौता। क्या कहूं इसे? मैं भी अपने काम से मतलब रखता हुआ आगे बढ़ जाता हूँ।
रोज कि तरह आज भी मैं सुबह जल्दी से तैयार हो कर अपने कार्यालय के लिए निकल गया। महानगर की सुबह मतलब भागमभाग। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं। बस जल्दी से अपने गंतब्य तक पहुंचना एक ही मकसद। आगे क्या है, कौन है, किसी को देखने कि फुरसत नहीं। अगर रास्ते में कोई जानपहचान वाला मिल गया और वो अगर महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं है तो दूर से नमस्कार कर आगे बढ़ जाना और महत्वपूर्ण लगा तो उससे सिर्फ ये पूछना की "कैसे हैं? मैं अभी ऑफिस जा रहा हूँ लौट कर आपसे बात करता हूँ"। येही है सुबह यहाँ की।
मैंने भी रोज की तरह अपने घर के आगे की गली को पार किया और मुख्य सड़क पर आ गया।आगे चौराहा है और ये चौराहा काफी ब्यस्त रहता है। यहाँ मुझे रास्ता पार करना है और फिर सड़क के अंतिम छोर से बस पकडनी है अपनी मंजिल के लिए। अभी ग्रीन सिग्नल दिया हुआ है। मैं सड़क किनारे खड़ा हो जाता हूँ और इंतज़ार करता हूँ, लाल बती होने का ताकि मैं आसानी से रास्ता पार कर सकूं। मेरे सामने ही एक महिला जिसके साथ एक छोटा बच्चा भी है, शायद उसी का होगा, अचानक रास्ते पर कूद पड़ती है जैसे कोई तैराक नदी में छलांग लगाता है, निडर हो कर क्योंकि उसे मालूम होता है कि वो नदी कि तेज धारा से आसानी से मुकाबला कर लेगा और देखते ही देखते वो महिला बच्चे को साथ लेकर ट्राफ्फिक कि तेज आवाजाही का मुकाबला आसानी से करते हुए सही सलामत रास्ते के उस पार चली गयी। मैंने देखा उसके चेहरे पर एक विजय की ख़ुशी झलक रही थी और एक हल्की सी मुस्कान रेखा उसके गालों पर फैल चुकी थी। जैसे कोई जंग जीत कर आये सिपाही के चेहरे पर दिखती है। मैं इस पार खड़े खड़े बस देखते रह गया। उसने जो किया वो सही था या मैं जो इस तरह खड़े हो कर अपना समय बर्बाद कर रहा हूँ वो सही है। सच में समय की सही कीमत तो वो सिर्फ वो जानती है। तभी तो सामने के खतरों की परवाह किए बिना समय का सदुपयोग करते हुए उसने न सिर्फ अपना बल्कि अपने साथ वाले बच्चे का और यहाँ तक कि रास्ते पर जाने वाली गाड़ियों के ड्राईवर तक का जीवन खतरे में डाल दिया और बिजयी बन कर, एक मुस्कान सब पर बिखेर कर चली गयी। मुझे उसने सीखा दिया कि जीवन से इतना मोह क्यूँ है, जब कि जीवन तो एक दिन नष्ट हो जायेगा। लेकिन समय अगर चला गया तो फिर लौट कर नहीं आयेगा। मेरे पास मेरी ही तरह खड़े एक महाशय बोल पड़े- " क्या बात है? मानना पड़ेगा! साहस है उसमे!......" मैं बोला - " जी, जरूर आपने सही कहा है, साहस तो है। मगर ये साहस क्या काम का जो जानबूझ कर आपको मौत के मुहं में ले जाये और सिर्फ आपको ही क्यूँ आपके साथ ही साथ आपके साथ वाले और आने जाने वालो को भी मौत के दुआर पर खड़ा कर दे। ये तो ऐसा ही जैसे आपमें जीने कि इच्छा खत्म हो गयी है और आप खुदकुशी कर रहे है। सिर्फ खुदकुशी ही क्यूँ , आप तो कत्ल भी कर रहे हैं दुसरो का जो कि निर्दोष है। क्या जाने जहाँ आप समय से पहुंचना चाहते है, वहां आप कभी पहुँच ही न पाए और वहां कोई आपका जिंदगी भर सिर्फ इंतज़ार ही करता रह जाये। अब बताइये क्या सही है? वो जो उसने किया या वो जो हम कर रहे है? सिर्फ पांच मिनट का इंतज़ार और सुरक्षित मंजिल तक पहुँचने का आसन रास्ता, एक इंतज़ार करती खुशहाल लम्बी जिंदगी। अरे मौत तो सभी को आनी है और आएगी भी एक दिन, मगर खुदकुशी करने से तो अच्छा है कि जीवन को जीया जाये। कौन जाने आने वाला समय हमारे लिए क्या सौगात लेकर आने वाला है।" महाशय ने शायद गौर से ही मेरी बात सुनी होगी ऐसा मुझे लगा। वो धीरे से बस मुस्करा भर दिए और हम दोनों ने लाल बत्ती होते ही रास्ता पार किया और अपनी अपनी मंजिल कि और चले गए।
आगे चलते चलते मैं सोच रहा था क्या सचमुच मेरी बात का कोई असर उन महाशय पर पड़ा होगा या सिर्फ वो खड़े खड़े वो पांच मिनट का समय बिता रहे थे। ये तो मुझे मालुम नहीं, लेकिन अब मुस्कुराने कि बारी मेरी थी। मैं जो उस तेज बहती धारा को पार कर सुरक्षित निकल आया था, बिना नदी में तैरे बस उस पानी पर चल कर आराम से। ये तो रोजमर्रा कि बात है, ऐसा तो रोज इस महानगर में हर चौराहे पर और हर सड़क पर देखने मिल जाता है। मैं किस किस को रोक रोक कर समझाता रहूँगा और कब तक और सबसे बड़ी बात क्यूँ? ये सवाल अचानक चलते चलते मेरे मन मैं कौंधा, क्यूँ? क्यूँ मैं इन्हें समझायूं? क्या सब के सब नासमझ हो गए हैं? मेरा क्या जाता है, जिंदगी उनकी है जो चाहे करे अपनी जिंदगी से। अगर मैं उन्हें समझाने जाऊँगा तो उलटे वो मुझे ही कठगरे में खड़ा कर देंगे, " तुम कौन होते हो हमे समझाने वाले? अपने आपको बहुत समझदार समझते हो? हैसियत ही क्या है तुम्हारी? चलो! जाओ अपना काम करो और हमें भी अपना काम करने दो"। दस में शायद सात का जवाब येही होगा, बाकि तीन हो सकता है आपसे सॉरी कहे और आगे बढ़ जाये। आगे जाते जाते आपके कानों में आवाज आएगी कि बड़ा आया समझाने वाला।
तो फिर मैं क्यूँ समझायूं किसी को? उन्हें तो खुद को समझ में आना चाहिए कि वो जो कर रहे वो क्या रहे है। मगर महानगर कि भागमभाग जिंदगी किसी को इतना सब कुछ सोचने कि फुरसत ही कहाँ देती है। कहीं कोई दुर्घटना घट गयी तो आने जाने वाले वहां जमा हो जायेंगे और थोड़ी देर मंज़र को देखने और समझने में बिता कर अपनी अपनी रह पर चले जायेंगे। दो चार जन अफ़सोस जताएंगे--" इतनी जल्दी क्या थी रास्ता पार करने कि, थोड़ी देर इंतज़ार नहीं कर सकता था। सिर्फ दो मिनट कि ही तो बात थी, मगर नहीं! पता नहीं इसको इतनी जल्दी क्या थी। भगवान् बहुत बुरा हुआ। उस साले गाड़ी वाले को तो पीटना चाहिए, दिखता नहीं था उसको कि कोई रास्ता पार कर रहा है।"  फिर क्या सब भूल जायेंगे उस घटना और दुर्घटना को।
मैं आगे तेज़ गति से बढ़ रहा था, क्योंकि मुझे अपने कार्यालय में समय से उपस्थित होना था। मेरी इस चिंता ने मेरी सारी सोच बंद कर दी और मेरे दिमाग में सिर्फ अपने बॉस कि रूद्र रूप कि तस्वीर उभरने लगी जो कि अक्सर देर से पहुँचने पर मुझे रूबरू होती थी साछात। अब तो मेरे पावों में जैसे पहिये लग गए थे, मैं जल्दी से जल्दी बस स्टॉप तक पहुंचना चाहता था, ताकि एक भी बस छुट न जाये वरना आज भी मुझे वो तश्वीर देखनी होगी और सारा दिन मेरा बर्बाद उस तश्वीर के साथ। मैंने गौर गिया कि फूटपाथ पर बहुत भीड़ थी, लोग रेंग रेंग कर आगे बढ़ रहे थे। एक तो फूटपाथ कि चौड़ाई कम थी, जैसा कि हर महानगर में होता है, ऊपर से फूटपाथ पर बनी हुई अनगिनत अस्थाई दुकाने जो कि लकड़ी कि चौकी को घेर लगाई हुई थी, पुरे फूटपाथ कि चौड़ाई को सिकुरते हुए बिल्कुल जगह ही नहीं छोड़ी थी कि राहगीर आराम से चल फिर सकें। सरकार को तो जैसे हम पैदल चलने वालो कि कोई फिकर ही नहीं है। फिकर हो भी क्यों? क्योंकि पैदल चलने वालो से भला सरकार के रास्ते विभाग को क्या मिलता है? सड़क का इस्तेमाल करने वाली गाड़ियों से सरकार को टैक्स के रूप में मोटी कमाई होती है। फूटपाथ पर बैठने वाले अस्थाई दुकानदारो से अलग अलग विभागों को उपरी कमाई होती है। ले दे कर पैदल चलने वाले ही बचते हैं जिनसे किसी को कोई कमाई नहीं। तो फिर हमारी चिंता कौन करेगा। इतना ही नहीं जो स्थाई दुकानदार हैं उन्होंने भी अपनी अपनी दुकानों के सामने के फूटपाथ पर बची हुई जगह पर कब्ज़ा जमा लिया है और अपनी दुकानों के फालतू सामानों को फूटपाथ पर डाल दिया हैं। बस सिर्फ फूटपाथ पर इतनी ही जगह बची है कि ढंग से एक ही आदमी चल सकता है, अगर सामने से कोई अन्य व्यक्ति आ गया तो उसे जगह देने के लिए अपने शरीर को एक सौ अस्सी डिग्री में मोड़ना पड़ेगा वरना उसके साथ आपकी टक्कर हो जाएगी। ऐसी परिस्थिती से रोज गुजरना तो जैसे अब आदत हो गयी है तभी तो कोई इसका कभी विरोध नहीं करता है। मजबूरी------ या -----समझौता। मैं भी बिना किसी का विरोध किए उसी तंग जगह में से अपना रास्ता बनाता हुआ तेजी से आगे बढ़ रहा था, अभी तक दो तीन जन से मेरी भिडंत हो चुकी थी। जल्दी जल्दी चलने कि कोशिश में न जाने कब मैं फूटपाथ छोड़ कर रास्ते पर उतर आया था मुझे पता ही नहीं चला। मुझे पता तो तब चला जब अचानक सामने से आती हुई एक तेज़ रफ़्तार गाड़ी ने जोर से चिंघारा और मेरी तन्द्रा भंग हो गई। मैं अपने आप से शर्मिंदा हो गया। रोड के उस तरफ ट्राफ्फिक पुलिस विभाग का एक बड़ा सा पोस्टर सड़क किनारे लगा हुआ था जिस पर लिखा हुआ था " फूटपाथ का इस्तेमाल करीए, सड़क पर चलना कानून जुर्म है। आपका अपना जीवन कीमती है। देख सुन कर रास्ता पार करें, घर पर कोई आपका इंतज़ार कर रहा है"।

 

बुधवार, 25 अगस्त 2010

Thought - To Think: आजादी

Thought - To Think: आजादी: "१९४७ से २०१० कुल मिला कर हो गए ६३ साल हमे आजाद हुए। ६३ साल एक सफ़र की तरह शायद गुज़र गया भारत के इतिहास में। इतिहास के पन्नो पर इन ६३ सालों ..."

सोमवार, 23 अगस्त 2010

आजादी

१९४७ से २०१० कुल मिला कर हो गए ६३ साल हमे आजाद हुए। ६३ साल एक सफ़र की तरह शायद गुज़र गया भारत के इतिहास में। इतिहास के पन्नो पर इन ६३ सालों का विवरण लिख दिया गया होगा ठीक उसी तरह जिस तरह गुलाम भारत का विवरण आज हमे मिल जाता है अनदेखा अनजाना विवरण। जिसे हम एक कहानी समझ कर शायद पढ़ लेते है। एक कहानी जो हमे शायद ख़ुशी देती है। एक कहानी जो हमारा मनोरंजन करती है। एक कहानी जो इतिहास का विषय है और विद्यालयों में पढ़ा और पढाया जाने वाला पाठ भी। जिसे छात्र पढ़ते हैं इसलिए की परीक्षा में उस पाठ में से कोई प्रश्न आ सकता है और उसका उत्तर लिखना है वर्ना नंबर कट जायेंगे और फेल होने का डर सताता है। न जाने कितनी ही फिल्मों का निर्माण हो चूका है इस इतिहास पर। हम बड़े शौक से जाते हैं इन फिल्मो को दखने के लिए। अन्दर का तो पता नहीं मगर सिनेमा हॉल से बाहर निकल कर हम सब भूल जाते है, हम ये भी भूल जाते है की फिल्म में दिखा गया इतिहास किसका था, हम तो सिर्फ और सिर्फ हीरो और हिरोइन की बातें करते नज़र आते है और फिर किसी नयी फिल्म का इंतज़ार करने लगते है। कितना अजीब सा है हमारा यह भारतीय परिवार। बिलकुल निश्चिंत निश्फिकिर, अपने आप में ब्यस्त, सब कुछ जान कर भी अनजाना, सब कुछ देख कर भी अनदेखा सा।
६३ साल ! क्या पाया हमने इन ६३ सालों में? क्या खोया हमने इन ६३ सालों में? क्या सचमुच हम आजाद हो गए हैं सही मायनो में? आजादी का मतलब क्या है? क्या सीखा है हमने इन ६३ सालों में? क्या हम सचमुच इन प्रश्नों का उत्तर दे सकते है? शायद नहीं?
६३ साल! हम आज तक अपनी पहचान भी ठीक तरह से नहीं बना पाए है विश्व पटल पर। क्या है हमारी पहचान? कौन है हम? एक इंडियन या भारतीय या फिर हिन्दुस्तानी ?
६३ साल! हम आज तक अपनी भाषा भी नहीं सिख पाए ठीक तरह से। क्या है हमारी भाषा? अंग्रेजी या हिंदी या फिर वो जो भारत के अलग अलग छेत्र में बोली जाती है अलग अलग भाषा।
६३ साल! हम आज तक विभाजित है धरम के नाम पर।
६३ साल! हम आज तक विभाजित है कर्म के नाम पर।
६३ साल! हम आज भी मजबूर है व्यवस्था के नाम पर।
६३ साल! हम आज भी पिस रहे है सत्ता के नाम पर।
६३ साल! रोज़ किसी न किसी तरह हम इन प्रश्नों को झेलते आ रहे है। कभी अख़बार के पन्नो पर। कभी रेडियो पर या फिर टीवी पर। कभी किसी सेमिनार में श्रोता बन कर। कभी अपने लोगो के बीच बैठ कर। कभी शायद अपने आप से ही बातें कर के।
मगर हम निश्चिंत है कोई न कोई तो उत्तर खोज ही लेगा इन प्रश्नों का और फिर ये हमारा काम नहीं है। ये तो उपरवालों का काम है जो हमसे ऊपर बैठे हैं। जो इस देश को चलाते हैं। हम सिर्फ एक आम आदमी हैं।
आम आदमी ! एक आम आदमी बिलकुल आम होता है। जिसे जो चाहे जब चाहे चूस कर फेक देता है। किसी गटर में या फिर किसी कुरेदान में। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से जिसे फुरसत नहीं, रोज़मर्रा की भागदोर से जिसे फुरसत नहीं, जो सिर्फ अपने आप में ही व्यस्त है, सुबह से शाम तक ज़िन्दगी की चक्की में रोज़ जो पिसता रहता है, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश करता हुआ, थका हरा, परेशान सा घर लौटता हुआ, जिसकी ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं, सब कुछ उस उपरवाले की दया पर, उम्मीद पर टिका, आशा करता हुआ जनम लेता है एक दिन मर जाता है। ऐसा होता है एक आम आदमी।
एक आम आदमी का देश, हमारा देश, हम सब का देश। मगर ये देश आज तक आम आदमी का नहीं हो सका और ना ही आम आदमी इस देश का। कितना बड़ा दुर्भाग्य है हम सब का की हम इस देश के हैं मगर हम इस देश के नहीं हो सके। हम सोचते बहुत हैं मगर करते कुछ भी नहीं। हमारी सोच सिर्फ हम तक ही रह जाती है। हम सुनते बहुत हैं मगर सुनाते नहीं। हमारे बोल हमारे अंदर ही दब कर रह जाते हैं, यहाँ तक की हमारे अपने कान भी उन बोलों को सुन नहीं पाते हैं। हमे अधिकार दिया गया है मगर उसे क्षिन भी लिया गया है। हमे आँखे तो दी गयी मगर रौशनी क्षिन ली गयी। सुबह आई मगर उजाला नहीं लायी। बाग़ तो है मगर बहार का पता नहीं। ज़िन्दगी है मगर जीवन का ठिकाना नहीं। लोग तो है मगर लोगों का पता नहीं। सब कुछ बस उस पर निर्भर। उसने दिया तो ठीक नहीं दिया तो ठीक। संतोष ही जीवन है और संतोषी हमारा मन। हम सब कुछ सह लेते हैं। कितना भी बुरा हो हम उसे नियति मान लेते है। ये सहना शायद हमारी आदत हो गयी है। अभी तक सिर्फ हम सहते ही आये है और सह रहे हैं और एक दिन सहते सहते चले जायेंगे। गुलामी की आदत सी हो गयी हमे। २००० साल या फिर उससे भी जयादा हम गुलाम थे। और आज भी हम गुलाम हैं। उस समय विदेशियों के गुलाम थे और आज हम अपने आप के। किसको दोष दें, उन विदेशियों को या फिर अपनों को। वो तो चले गए मगर ये अपने कहाँ जायेंगे? उनसे तो हम लड़ लिए मगर इनसे कैसे लड़े? उनसे लड़ने के लिए हमारे पास हथियार थे, अहिंसा, एकता, भाईचारा, सध्भाव्ना, सत्य और संकल्प। इनसे लड़ने के लिए तो हमारे पास हथियार भी नहीं है। क्योंकि इन्होने हमे पंगु बना दिया है। हमारे हाथ कट दिए हैं। हमारी शक्ति को क्षिन लिया है। जिस हाथ पाँव और शक्ति के बल पर हम लड़े थे वो ही आज हमारी रुकावट बन गए हैं। हम लड़े भी तो कैसे लड़े और हम किसके विरुद्ध लड़े अपनों के ही ?
हम सबका भारत हमारा अपना भारत सपनो का भारत एकता और भाईचारा का भारत।
आजादी को सलाम भारत को सलाम भारत के भारतवासियों को सलाम।

Thought - To Think: जीवन और हमारी...............

Thought - To Think: जीवन और हमारी...............: "जीवन और जिंदगी, दो शब्द, अर्थ एक। जीवन हमे कोई और देता है, और जिंदगी हम खुद अपने लिए चुनते हैं। इन दो शब्दों का यहाँ अर्थ ही बदल देते हैं ..."