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शनिवार, 14 अप्रैल 2012

विकल्प!------क्या है ?

हम जब ज़िन्दगी से हार जाते हैं तो क्या करते हैं?
सिर्फ दो ही विकल्प बचते हैं हमारे पास, या तो मौत से दोस्ती कर ली जाये या फिर ज़िन्दगी से दुबारा युद्ध शुरु कर दिया जाए। कहने को तो दोनों बड़े ही आसान लगते हैं। मौत से दोस्ती या ज़िन्दगी से युद्ध! पर असल में दोनों ही बड़े कठिन है। मौत से दोस्ती क्या इतनी सरल है? क्या मौत इतनी आसानी से हमारी दोस्ती कबूल कर लेगी? सोच कर ही माथे पर शिकन आ जाती है। मौत भी तो भाई अपनी इच्छा की मालिक है। जब उसकी इच्छा होगी तभी तो दोस्त बनकर हमें गले लगाएगी। अगर मौत से दोस्ती इतनी आसान होती तो हर कोई उससे दोस्ती कर लेता। पर नहीं उसके ह्रदय में जगह तो तभी मिलेगी जब वो चाहेगी। जहाँ तक मैं समझता हूँ, कितनो ने ही कोशिश की होगी मौत को गले लगाने की पर सफल नहीं हो पाए। कोशिश नहीं भी तो कम से कम एक बार सोचा तो ज़रूर होगा। ऐसा हो नहीं सकता कि कोई कभी ज़िन्दगी में निराश न हुआ हो। कम से कम मैं तो ऐसा मानता हूँ। ज़िन्दगी की दौड़ में कोई कभी हारा न हो, ऐसा क्या हो सकता है? बिलकुल नहीं।
जब हम ज़िन्दगी से निराश हो जाते हैं, जब हम ज़िन्दगी की दौड़ में हार जाते हैं, तब हमें ज़िन्दगी एक बोझ लगने लगती है और हम मौत की तरफ अपने कदम बढाने लगते हैं। फिर जब हमारा मौत से सामना होता है तो हम ज़िन्दगी की दुहाई देने लगते हैं। कितनी अजीब स्तिथि होती है न ये! ज़िन्दगी और मौत! दो सच हमारे सामने है। फिर भी कोई इनको मानने को तैयार नहीं। पता नहीं क्यूँ हम सच से हरदम दूर क्यों भागते हैं। सच का सामना हम करना ही नहीं चाहते हैं। सच तो सच होता है। मौत से सभी को डर लगता है। लगे भी नहीं क्यूँ, क्योंकि मौत होती भी कितनी भयानक है। किसी को भी नहीं मालूम कि मौत के बाद क्या होता है। मगर सभी को ये मालूम है की ज़िन्दगी के बाद सिर्फ मौत है। ज़िन्दगी में तो सब कुछ दिखता है। जो बीत चूका, जो हो रहा है या फिर आने वाला पल जिसकी हम कल्पना करते है। सब कुछ हमारे सामने है, हो रहा है, हो चूका या फिर होने वाला है। मगर ज़िन्दगी भी कोई इतनी आसान नहीं होती है, एक युद्ध है ये। जहाँ हर पल एक आशंका बनी रहती है जीत की या फिर हार की। जहाँ हर पल एक आशंका बनी रहती है जीवन की या फिर मौत की। जहाँ हर पल आशंका बनी रहती है पाने की या फिर खोने की। इसी आशंका और संकट के बीच जो है वो जीवन है और जीवन का ही दूसरा रूप ज़िन्दगी है। हम इसी आशंका को टालने के लिए क्या क्या नहीं करते है। भगवान से ले कर हर उसकी पूजा करते हैं जिनसे हमे आशा होती है कि वो हमारी हर आशंका को मिटा देंगे, हमारे हर संकट को हर लेंगे। नेता चुनाव में खड़ा हो, खिलाडी मैदान पर डटा हो, सैनिक युद्ध के मैदान पर लड़ रहा हो, राहगीर रह पर चल रहा हो, विद्यार्थी परीछा में बैठा हो, कर्मी काम पर लगा हो, गृहणि घर पर हो, आशंका हर जगह बनी रहती है, हार या जीत की और इसी आशंका को दूर करने के लिए, जो हम चाहते हैं उसे पाने के लिए हम वो सब करते हैं जिस कार्य में हमें आशंका को टालने की आशा दिखाई देती है। और तो और कभी कभी हम वो भी कर जाते हैं जो कार्य हमे नहीं करना चाहिए। जो गलत है। मगर नहीं हमे तो सिर्फ और सिर्फ जीतना है, और जीतने के लिए हम कुछ भी कर सकते है। आखिर कहा भी तो गया है कि युद्ध और प्यार में सब जायज है। मुझे नहीं मालूम ये किसने कहा है और क्यूँ कहा है। मगर अपने मन को संतोष प्रदान करने के लिए ये पंक्ति हर कोई याद कर लेता है। ये युद्ध हर कोई जीतना चाहता है। जो छोटी लड़ाई जीत गया वो फिर बड़ी लड़ाई में हिस्सा लेता है और फिर उससे भी बड़ी, और उससे भी बड़ी........., इस लड़ाई का कोई अंत नहीं है। आप जीतना भी लड़ोगे ये लड़ाई उतनी ही बड़ी होती जाएगी। जब आप एक बार जीत का स्वाद चख लेते हो तो फिर आपकी आशाएं भी बढ़ने लगती है और लड़ाई भी उसी अनुरूप अपना आकार बढ़ा लेती है। आप कितना लड़ सकते हो ये सिर्फ आप ही तय कर सकते हो, क्योंकि लड़ाई के मैदान में लड़ाई का कोई आकार नहीं होता और कोई तय समय सीमा नहीं होती है। ये सिर्फ लड़ने वाले पर निर्भर करता है कि वो मैदान में कितनी देर टिक सकता है, और इसी को मात देने के लिए हम न जाने क्या क्या कर जाते हैं। मगर अंत में हमे क्या मिलता है? कोई बता सकता है? 
नहीं हमे कुछ भी नहीं मिलता है, न हम कुछ पाते हैं और न हम कुछ खोते है। मगर इस पाने और खोने की जधोजहद में न जाने हम क्या क्या खो देते है। अपना अमूल्य समय, जो हमें दुबारा नहीं मिलेगा। अपना अमूल्य जीवन, जो हमें दुबारा नहीं मिलेगा। और तो और अपनी अंतरात्मा, अपने विवेक तक हम खो देते हैं।
क्या सिर्फ जीतना ही सब कुछ है? क्या जीतने से ही सब कुछ मिलेगा? शायद हाँ या फिर ना।  माना की जीतना जरुरी है लेकिन कैसे? उस तरह! जहाँ हम जीत तो जाते हैं मगर कुछ जीत नहीं पाते हैं, या फिर जीत कर भी हार जाते हैं। जीत तो वो होती है जब दुश्मन भी आपकी वाह वाही कर उठे और कहे वाह क्या जीते हो तुम। कहने का मतलब असली जीत तो वो होती है जब ज़िन्दगी भी आपकी जीत पर ख़ुशी से झूम उठे। जीत वो नहीं होती जहाँ जीवन ही निराश हो जाये। ऐसी जीत से क्या होगा, जो आपको मिली तो मगर आपका सब कुछ छिनकर। 
ज़िन्दगी से युद्ध का मतलब ये नहीं की आप ज़िन्दगी को ही धोखा दे दो। बल्कि युद्ध तो वो होता है जहाँ आपको ये दिखाना होगा कि " देख ज़िन्दगी तू जितनी खुबसूरत है मैंने तुझे उतनी ही खूबसूरती से जीया है, अब तू ही बता कौन जीता और कौन हारा ?"

"जीयो ज़िन्दगी में इस तरह कि
ज़िन्दगी भी तुमसे इर्ष्या करे,
भर दो खूबसूरती इतनी कि
औरो की ज़िन्दगी भी जलन करे।


मौत भी आये तुम्हे गले लगाने
तो शर्माकर वो चली जाये,
ज़िन्दगी पकडे दामन तुम्हारा  
कि छोड़ने को उसका भी जी न चाहे।


ज़िन्दगी को सिर्फ दो लाइन 
नहीं एक किताब बनायो,
उसके हर एक पन्ने पर
बस तुम ही तुम छा जाओ।


लेखनी भी तुमसे कह उठे
इतनी सुन्दरता लेख में भर दी,
तुम्हारे हाथों में आकर मैं
तो आज धन्य हो उठी।


धन्य हो उठी मैं आज
कि तुमने है जो लिखा,
तुम्हारे हाथों में आकर ही
मैंने भी जीवन को जीया।


बन "ज्योति" तू इस कदर
ऊपर आसमान पर छा जाये,
तेरी इस ज्वाला के आगे
सूरज भी फीका पड़ जाये।"















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